
स्वरचित कविता
पारुल निरंजन
प्रधानाध्यापिका
प्रा. वि. उसरी रसूलाबाद(कानपुर देहात.)
चारों ओर अंधेरा छाया हो…
न पंथ नज़र कोई आया हो…
जब जीवन में भ्रम गहराया हो।
अपनों ने अवरोध बनाया हो।.
किंचित मत डरना तुम… न झुकना तुम न रुकना तुम….
कितना भी संकट छाया हो…
खुद से बस इतना कहना तुम…
मैं कर सकती हूं…
मैं चल सकती हूं..
जीत बिघ्न हर सकती हूं..
खोल के अपने पंखो को…
अपने मन के सपनो को…
मैं उड़ सकती हूँ…
मैं जी सकती हूं…
फिर कहना खुद से इक पल तुम…
किसका डर है? कैसा डर है?.
मैं तो आगे बढ़ती जाउंगी…
शिखरों तक चढ़ जाऊंगी…
अपने होने का तुम सबको
पल पल एहसास कराऊंगी…
हाँ मैं ही हूं…हाँ मैं भी हूं…
फिर डरना क्या…
फिर झुकना क्या….
मंज़िल की दूरी तक चलकर
फिर रुकना क्या?
फिर थकना क्या???
दृढ़ करके, अपने साहस को…
चल पड़ी जीत को मैं अविचल..
पूरा करना है अरमानों को…
अब डरना क्या अब रूकना क्या???
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