Friday, August 22, 2025
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पाकिस्तान को सबक सिखाने की थी आवश्यकता, युद्ध विराम का निर्णय गलत

(भारत की आवाज़)

अमेरिका ने हस्तक्षेप कर युद्धविराम की घोषणा कर दी लेकिन यह हस्तक्षेप एक कूटनीतिक प्रतीक बन गया है

प्रमुख संवाददाता स्वराज इंडिया
लखनऊ।
भारत और पाकिस्तान के बीच जारी सैन्य टकराव पर अचानक आया युद्धविराम न तो किसी पक्ष की स्पष्ट कूटनीतिक जीत है, न ही इसे स्थायी समाधान का नाम दिया जा सकता है लेकिन यह तय है कि एक लंबे युद्ध की संभावना को रोककर दोनों देशों ने फिलहाल एक बड़ी मानवीय त्रासदी को टाल दिया है। पाकिस्तान जो वर्षों से आतंकवाद को नीति-संरचित उपकरण की तरह इस्तेमाल करता आया है, उसे पहली बार अपने घर में ही करारा जवाब मिला। भारतीय कार्यवाही से उसे समझ आ गया कि अब परमाणु छतरी की आड़ में आतंकी छिपाने की छूट नहीं मिलने वाली। उधर भारत ने भी यह पहचाना कि उसकी जवाबी क्षमता कहाँ-कहाँ और कैसे मजबूत होनी चाहिए। इस बीच अमेरिका ने हस्तक्षेप कर युद्धविराम की घोषणा कर दी लेकिन यह हस्तक्षेप एक कूटनीतिक प्रतीक बन गया। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने इस विराम की घोषणा स्वयं कर दी। इससे हमारे आत्मनिर्भर और निर्णायक शक्ति के वैश्विक छवि पर यकीनन प्रश्नचिन्ह खड़ा हुआ है। संदेश साफ है कि हमारी कूटनीतिक तैयारी, युद्ध-संचालन और संवाद-रणनीति तीनों पर पुनर्विचार का समय है लेकिन युद्ध का रुकना भी कम मूल्यवान नहीं। युद्ध एक सैन्य प्रक्रिया भर नहीं मानवीय त्रासदी होती है। युद्धभाव का अर्थ यह नहीं कि आक्रोश में सब कुछ जला दिया जाए बल्कि यह कि न्यूनतम हिंसा में अधिकतम निष्कर्ष निकाला जाए। भारतीय सेना की सीमित, लक्षित कार्यवाही और नागरिक जीवन को नुकसान से बचाने की नीति इसी विवेक को दर्शाती है परंतु यह भी सच है कि जो लक्ष्य घोषित किए गए थे आतंक की अधिसंरचना का समूल नाश, पहलगाम नरसंहार के अपराधियों को दंड, पाकिस्तान को असहनीय कीमत चुकवाना वे अब भी अधूरे हैं।

युद्धविराम बिना इनकी पूर्ति के केवल एक ब्रेक है अंत नहीं है इसलिए यह जरूरी है कि भारत अब अपने सैन्य, कूटनीतिक और आंतरिक सुरक्षा तंत्र को पुनः परिभाषित करे। युद्ध से नहीं पर निर्णायक नीति और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर निर्णायक स्थिति से ही वह संदेश जाएगा कि भारत अब कोई भी झटका चुपचाप सहने वाला राष्ट्र नहीं। जब हथियार खामोश हो जाते हैं और गोलियों की जगह बातचीत की आवाजें गूंजने लगती हैं तो हमें लगता है शायद शांति लौट आई है लेकिन क्या यह खामोशी स्थायी है या बस एक रणनीतिक ठहराव। युद्धविराम की मध्यस्थता अक्सर कूटनीति की जीत लगती है लेकिन जमीनी हकीकत इससे अधिक जटिल होती है। यह न कोई स्पष्ट शुरुआत है, न ही कोई स्थायी अंत, यह एक अस्थायी संधि है जिसके नीचे असंतोष और अविश्वास की चिंगारियां लगातार सुलगती रहती हैं। युद्धविराम को टिकाऊ शांति में बदलना दुनिया की सबसे कठिन चुनौतियों में से एक है। केवल हथियार किनारे रख देना पर्याप्त नहीं, जरूरी है ऐतिहासिक घावों की ईमानदार मरहम-पट्टी, लोगों के बीच संवाद की बहाली और न्यायपूर्ण समाधान की इच्छा। युद्धविरामों की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वे स्थायित्व के भ्रम को जन्म देते हैं। शांति की प्रक्रियाएं जब तक दिखावटी और ऊपर-ऊपर हों तब तक युद्ध की संभावनाएं भीतर-ही-भीतर पलती रहती हैं इसीलिए यह जरूरी है कि हम युद्धविराम को अंत नहीं बल्कि आरंभ मानें सरकार को एक बार पुनः विचार करते हुए इस पर सटीक निर्णय लेने की आवश्यकता है। अपने देश की कमांड किसी और देश को सौंपकर अपनी क्षमता को कमजोर नहीं करना चाहिए।

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