Friday, August 22, 2025
Homeराज्यउत्तर प्रदेशपीडीए की सियासत में उलझी सपा के लिए एम-वाई गठजोड़ नई चुनौती

पीडीए की सियासत में उलझी सपा के लिए एम-वाई गठजोड़ नई चुनौती



स्वराज इंडिया :  न्यूज़ ब्यूरो / लखनऊ


2024 लोकसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन और 37 सीटों की जीत के बाद समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख अखिलेश यादव एक बार फिर उत्तर प्रदेश की सियासत के केंद्र में हैं। मगर यह जीत जितनी बड़ी थी, उतनी ही जटिल चुनौतियों को भी जन्म दे गई है। पीडीए यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक समीकरण को अपना सियासी अस्त्र बनाने वाली सपा अब अपने पुराने एम-वाई (मुस्लिम-यादव) फार्मूले की बंदिशों में उलझती दिख रही है।
2024 में कांग्रेस के साथ गठबंधन और सामाजिक समीकरणों की सधी रणनीति के चलते सपा ने 2019 के पांच सीटों से छलांग लगाकर 37 सीटें जीत लीं। लेकिन इस जीत के बाद भी सवाल यही है — क्या अखिलेश यादव 2027 में ‘मिशन 300’ का सपना पूरा कर पाएंगे या फिर जातिगत उलझनों में एक बार फिर उलझ जाएंगे?अखिलेश यादव ने 2024 में जिस पीडीए फॉर्मूले को धार दी, उसने दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय को जोड़ने का काम किया। लेकिन इस फॉर्मूले की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें सवर्ण और गैर-ओबीसी वर्ग खुद को हाशिए पर महसूस करता है।
सपा ने ‘समावेशी राजनीति’ का संदेश देने की कोशिश की। पोस्टर लगाए गए – “हम जातिवादी नहीं, पीडीए वादी हैं।” लेकिन यह संदेश उल्टा पड़ गया। बीजेपी ने इसे “दुहरी राजनीति” बताते हुए प्रचारित किया कि अखिलेश यादव न तो सवर्णों के साथ हैं और न ही सच में दलितों के।


कहां उलझ रही है सपा की रणनीति?

ठाकुर बनाम ब्राह्मण नैरेटिव:
इटावा के कथावाचक विवाद को ‘ब्राह्मण बनाम यादव’ रंग देने की कोशिश की गई।

दलित-ठाकुर तनाव:
करणी सेना द्वारा सपा सांसद रामजीलाल सुमन के घर हमला हो या राणा सांगा टिप्पणी—हर विवाद को जातिगत खांचे में बांधने की कोशिश की गई।

कोर वोट बैंक की मजबूरी:
यादव और मुस्लिम सपा का स्थायी आधार हैं, लेकिन सिर्फ इन दो वर्गों पर निर्भरता 2027 की बड़ी लड़ाई के लिए नाकाफी हो सकती है।





दलित खिसकते, पिछड़े बंटते, अल्पसंख्यक स्थिर

पिछड़े (P):
यादवों के अलावा ओबीसी में सपा की पकड़ कमजोर है। कुर्मी, लोध, निषाद जैसी जातियां बीजेपी के साथ लगातार जुड़ी रही हैं।

दलित (D):
बसपा के कमजोर होने से कुछ दलित वोट जरूर सपा की ओर आए, लेकिन कोई स्थायी ध्रुवीकरण नहीं बन पाया।

अल्पसंख्यक (A):
मुस्लिम वोटर अखिलेश के साथ मजबूती से हैं, लेकिन सपा की यही छवि बीजेपी को “एम-वाई पार्टी” का नैरेटिव चलाने में मदद करती है।



बीजेपी का पलटवार और छवि-युद्ध

बीजेपी 2017 से लगातार सपा को ‘माफियाओं की पार्टी’, ‘गुंडाराज की प्रतीक’, और ‘जातिवादी पार्टी’ के रूप में पेश करती रही है।

2024 की जीत के बावजूद, अखिलेश यादव के जन्मदिन पर लगे पोस्टरों में उन्हें “ब्राह्मण-विरोधी”, “दलितों का उपयोगकर्ता”, और “अराजकता का नायक” बताया गया। यह सवर्ण और गैर-ओबीसी वोटरों को मनोवैज्ञानिक तौर पर सपा से दूर करने की रणनीति है, जो 2017 और 2022 में असरदार रही थी।




2027 का टारगेट, लेकिन रणनीति बिखरी हुई

‘मिशन 300’ का ऐलान कर चुके अखिलेश यादव के लिए यह वक्त आत्मचिंतन का है।

क्या केवल एम-वाई से मिशन 300 संभव है?

क्या पीडीए का जिक्र कर, लेकिन व्यवहार में एम-वाई तक सीमित रहकर 300 सीटें पाई जा सकती हैं?

क्या दलितों और सवर्णों को बिना आहत किए उन्हें भरोसे में लिया जा सकता है?


इन सवालों के जवाब खोजे बिना सपा का सत्ता में लौटना मुश्किल दिखता है।


अखिलेश की दुविधा – रास्ता कौन सा?

सपा को यह तय करना होगा कि:
वह अपनी कोर ताकत (यादव-मुस्लिम) पर ही निर्भर रहेगी। एक समावेशी सामाजिक गठबंधन बनाकर नए वोटरों को जोड़ने की कोशिश करेगी।
अगर वह पहली राह चुनती है तो बीजेपी की  ब्राह्मण-ठाकुर-ओबीसी केंद्रित रणनीति उन्हें घेर लेगी। और अगर दूसरी राह चुनती है, तो कोर वोट बैंक की नाराजगी का खतरा उठाना होगा।
2024 में मिली जीत ने अखिलेश यादव को सियासत में मजबूती दी है, लेकिन उनकी असली परीक्षा अब 2027 में है। पीडीए के सहारे आगे बढ़ने की योजना तभी सफल होगी, जब सपा एम-वाई से बाहर निकलकर एक समावेशी, संतुलित और विश्वसनीय विकल्प के रूप में खुद को पेश कर पाए।
वरना बीजेपी के लिए उन्हें ‘वोट बैंक की राजनीति’ में उलझा नेता साबित करना कोई मुश्किल नहीं होगा।  2027 का मिशन तभी पूरा होगा, जब रणनीति न केवल जातीय समीकरणों को साधे, बल्कि भरोसे का दायरा भी बढ़ाए।



विशेष रिपोर्ट
संजय सक्सेना, वरिष्ठ पत्रकार

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments

error: Content is protected !!