Sunday, May 11, 2025
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भारत के 52 वें सीजेआई गवई लेंगे 14 को शपथ…

भाषा में सादगी,फैसलों में कानूनी तर्क है ‘जिनकी’ है पहचान

प्रमुख संवाददाता स्वराज इंडिया, लखनऊ। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना का नाम आजकल एक हर की जुबान पर चढ़ा हुआ है। वह मोदी सरकार द्वारा वक्फ कानून में किये गये बदलाव पर सुनवाई कर रहे हैं।शुरूआती दो दिन की सुनवाई के दौरान जस्टिस खन्ना ने जिस तरह से विधायिका में बनाये गये कानून के खिलाफ सख्त टिप्पणी की उसके बाद उनके ऊपर कई नेता और न्यायविद्व हमलावर हैं। आम जनता भी सवाल खड़े कर रही है,कहा यह भी जा रहा है कि जस्टिस खन्ना मामले की सुनवाई में काफी तेजी दिखा रहे हैं,इसकी वजह में जाकर देखा जाये तो पता चलता है कि खन्ना 13 मई को रिटायर्ड हो रहे हैं। शायद वह अपने रिटायर्डमेंट से पूर्व इस केस को किसी अंजाम तक पहुंचा देना चाहते हों। यदि ऐसा नहीं हुआ तो उनके सेवानिवृत होने के बाद अगले चीफ जस्टिस यह मुकदमा सुनेंगे। अलगे मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायविद भूषण रामकृष्ण गवई को 14 मई को 52 वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदभार ग्रहण करना है। करीब सवा छह महीने यानी 23 नवंबर 2025 तक मुख्य न्यायाधीश के रूप में जस्टिस गवई अपनी जिम्मेदारी निभायेंगे।
जस्टिस गवई अनुसूचित जाति से आते हैं। इससे पूर्व जस्टिस केजी बालकृष्ण 2007 से 2010 तक मुख्य न्यायाधीश रहे थे। बालकृष्ण भी दलित समाज से ताल्लुक रखते थे। अभी तक दलित समाज से सिर्फ दो ही मुख्य न्यायाधीश बने हैं। बहरहाल, अपने न्यायिक कार्यों का संपादन करने के दौरान जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में उभर कर सामने आए हैं, जिनकी यात्रा साधारण पृष्ठभूमि से निकलकर सर्वोच्च न्यायालय के शीर्ष पद तक पहुँचने वाली है। उनकी कहानी न केवल प्रेरणादायक है बल्कि भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक न्याय और समावेशिता की दिशा में एक सकारात्मक संकेत भी है। जब वे 14 मई 2025 को भारत के 52 वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदभार ग्रहण करेंगे, तब वे दलित समुदाय से आने वाले केवल दूसरे व्यक्ति होंगे जो इस सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंचेंगे।

भूषण गवई का जन्म 24 नवंबर 1960 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले में हुआ था। उनके पिता रावसाहेब गवई एक प्रमुख राजनीतिज्ञ थे और बाबासाहेब आंबेडकर की विचारधारा से प्रभावित थे। ऐसे वातावरण में पले-बढ़े भूषण गवई ने नागपुर विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की और 1985 में बॉम्बे हाईकोर्ट में वकालत शुरू की। प्रारंभिक वर्षों में उन्होंने प्रमुख अधिवक्ता और न्यायाधीश राम रेड्डी के अधीन अभ्यास किया, जिससे उन्हें न्याय की गहराई और संवैधानिक मूल्य समझने का अवसर मिला।

गवई को वकालत में सफलता के बाद, 14 नवंबर 2003 को बॉम्बे हाईकोर्ट में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था। अगले 16 वर्षों तक उन्होंने इस पद पर रहते हुए असंख्य महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई की। उनकी न्यायिक दृष्टि में न केवल कानूनी बारीकियों की गहरी समझ थी, बल्कि सामाजिक संदर्भों का भी विशेष स्थान था। वे हमेशा इस बात के पक्षधर रहे कि न्याय केवल कानून की किताबों तक सीमित न रहे, बल्कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे।

2019 में उन्हें भारत के सर्वाेच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त किया गया। यह नियुक्ति न केवल उनके लिए व्यक्तिगत सम्मान थी, बल्कि एक संकेत भी था कि भारतीय न्यायपालिका में विविधता और प्रतिनिधित्व का महत्व बढ़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट में रहते हुए उन्होंने कई ऐतिहासिक और संवेदनशील मामलों की सुनवाई में भाग लिया। इनमें 2016 की नोटबंदी की संवैधानिक वैधता, अनुच्छेद 370 की समाप्ति, और चुनावी बांड योजना शामिल हैं। नोटबंदी के मामले में वे बहुमत की उस राय का हिस्सा रहे, जिसने सरकार के फैसले को सही ठहराया। उन्होंने यह तर्क दिया कि इस निर्णय की प्रक्रिया में भारतीय रिजर्व बैंक को विश्वास में लिया गया था और इसीलिए इसे असंवैधानिक नहीं माना जा सकता।

हाल ही में जब चुनावी बांड योजना पर फैसला देने वाली पीठ का गठन हुआ, तो जस्टिस गवई ने खुद को उस पीठ से अलग कर लिया। यह फैसला दर्शाता है कि वे न्यायिक नैतिकता और निष्पक्षता को कितनी गंभीरता से लेते हैं। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि उन्हें उस मामले में बैठना उचित नहीं लगेगा, जिससे हितों के टकराव की आशंका हो। यह उदाहरण उनके चरित्र की पारदर्शिता और सिद्धांतवादी सोच को दर्शाता है।

सुप्रीम कोर्ट में उनके कार्यकाल के दौरान उन्होंने सामाजिक न्याय से जुड़े मामलों में विशेष रुचि दिखाई। उन्होंने विशेष रूप से उन मामलों में मजबूत टिप्पणी की, जहां नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो या समाज के हाशिए पर रह रहे वर्गों को न्याय नहीं मिल पा रहा हो। उनकी भाषा में सादगी होती है, लेकिन उनके फैसलों में कानूनी तर्क और मानवीय दृष्टिकोण का गहरा संतुलन देखा जा सकता है।

नवंबर 2024 में गवई को राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस भूमिका में उन्होंने गरीबों, वंचितों, महिलाओं, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और दिव्यांग नागरिकों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता को प्रभावी बनाने के लिए ठोस प्रयास किए। उनका मानना रहा है कि न्याय तब तक सार्थक नहीं हो सकता जब तक वह हर व्यक्ति तक समान रूप से न पहुंचे। उन्होंने लोक अदालतों, ई-कोर्ट्स और विधिक साक्षरता कार्यक्रमों को बढ़ावा देने की नीति अपनाई।
जस्टिस कार्यशैली में एक विशेष गुण यह है कि वे कोर्टरूम की गरिमा बनाए रखते हुए सभी वकीलों को धैर्यपूर्वक सुनते हैं। वे तकनीकी पक्षों की गहन पड़ताल करते हैं, लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित करते हैं कि न्याय में देरी न हो। उनकी भाषा संयमित होती है, लेकिन जब बात संवैधानिक नैतिकता की आती है, तो वे कठोर भी हो सकते हैं। यह संतुलन ही उन्हें एक प्रभावी न्यायाधीश बनाता है।
जब वे 14 मई 2025 में भारत के मुख्य न्यायाधीश बनेंगे, तब उनके सामने कई महत्वपूर्ण चुनौतियाँ होंगी। न्यायिक प्रणाली में लंबित मामलों की संख्या कम करना, ई-गवर्नेंस को न्यायपालिका में और सुदृढ़ बनाना, तथा न्याय तक समान पहुंच सुनिश्चित करना उनकी प्राथमिकताओं में शामिल हो सकता है। उनके नेतृत्व में न्यायपालिका में तकनीक के अधिक प्रयोग और कानूनी प्रक्रियाओं के सरलीकरण की दिशा में ठोस पहल की उम्मीद की जा रही है।

नए मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल सिर्फ 6 महीने रहेगा

उनका कार्यकाल भले ही 6 महीने का होगा, लेकिन उनकी न्यायिक सोच और दृष्टिकोण इस छोटे से समय में भी प्रभाव छोड़ने में सक्षम हैं। वे जिस सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं, वह उन्हें न्यायपालिका के उस पक्ष से जोड़ता है जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है दृ यानी समाज के सबसे कमजोर तबके।
कुल मिलाकर जस्टिस भूषण गवई की कहानी न केवल एक व्यक्ति की न्यायपालिका के शीर्ष तक पहुंचने की यात्रा है, बल्कि यह भारतीय न्याय व्यवस्था के भीतर बदलाव की एक संकेत भी है। वह बदलाव जो समावेशिता, पारदर्शिता और सामाजिक न्याय की नींव पर आधारित है। आने वाले समय में भारत की न्यायपालिका को उनके अनुभव, संवेदनशीलता और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता से बहुत लाभ मिलने की संभावना है। उनका नेतृत्व यह तय करेगा कि कानून का शासन न केवल किताबों में, बल्कि जमीन पर भी महसूस किया जाए।

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