Friday, August 22, 2025
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शिक्षा सेवा न रहकर बनकर रह गई उद्योग !

शिक्षा के व्यवसायीकरण पर जिम्मेदारों ने साध रखी है चुप्पी

स्वराज इंडिया न्यूज ब्यूरो

कानपुर। पुराने समय में भारत में शिक्षा कभी व्यवसाय या धंधा नहीं थी परंतु वर्तमान में शिक्षा का व्यवसायीकरण और बाजारीकरण हो गया है। 1992 के बाद के उदारीकरण और बाजारवादी नीतियों ने देश की राजनीति को इस दिशा में मोड़ दिया कि शिक्षा भी एक सेवा नहीं उद्योग बन गई है। ऐसे में प्राइवेट स्कूलों का सरकारीकरण संभव तो नहीं लगता लेकिन यह सवाल पूछना अब जरूरी हो गया है क्या शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ मुनाफा कमाना है। जब शिक्षा पाना मौलिक अधिकार है तो गुणवत्ता पर अधिकार भी क्यों न हो ? आज सरकारी स्कूलों को बदनाम करके और प्राइवेट स्कूलों को ‘ब्रांड’ बनाकर देश की शिक्षा व्यवस्था दो टुकड़ों में बांट दी गई है। एक गरीब के लिए, एक पैसे वालों के लिए। तो क्यों न पूछा जाए क्या शिक्षा भी अब पूंजी की बंधक बनकर रह जाएगी ?
सरकारीकरण की मांग कोई कल्पना नहीं बल्कि उन अभिभावकों की चीख है जो हर महीने फीस की चट्टानों से कुचले जाते हैं। आखिर कोई प्राइवेट स्कूल बंद क्यों नहीं होता, चाहे रिजल्ट आए न आए और सरकारी स्कूलों को क्यों बंद किया जाता है, चाहे वे परिणाम दें या नहीं ? क्यों न प्राइवेट स्कूलों को भी आरटीआई, समाजिक ऑडिट और नियमन के दायरे में लाया जाए ? क्यों न वहाँ भी स्थानांतरण, उत्तरदायित्व और जवाबदेही हो ? शिक्षा का बाजारीकरण रोकना है तो निजी स्कूलों को जनता के अधीन लाना ही होगा। नहीं तो शिक्षा केवल ‘बेचने’ और ‘खरीदने’ की वस्तु बन जाएगी। सवाल यह नहीं कि यह संभव है या नहीं सवाल यह है कि यह आवश्यक है या नहीं और उत्तर साफ है यह आज के भारत के लिए अनिवार्य है। एक समय था जब बड़े भाई या बहन की किताबों से हमारे छोटे भाई-बहनों, रिश्तेदारों और गांव के बच्चों ने भी पढ़ाई की। यह स्थिति बताती है कि शिक्षा सस्ती थी, किताबें सस्ती थीं और बच्चों को शिक्षा प्राप्त करना एक सहज और सामान्य प्रक्रिया थी। उस समय शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्रदान करना था, न कि एक बड़ा मुनाफा कमाने का साधन बनाना लेकिन आज की स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। अब स्कूलों में अपनी विशेष किताबों और सिलेबस का पालन किया जा रहा है। इन किताबों से स्कूलों को कमीशन मिलता है और यही स्थिति शिक्षा के बाजारीकरण का स्पष्ट उदाहरण है। अब किताबों का पैटर्न हर साल बदलता है जिससे अभिभावकों को बार बार नई किताबें खरीदनी पड़ती हैं। नर्सरी से लेकर एलकेजी-यूकेजी तक के सिलेबस का खर्च 5 से 10 हजार रुपये तक पहुंच चुका है और इसके अलावा एडमिशन फीस, मंथली फीस, बिल्डिंग फीस और अन्य शुल्क भी जोड़े जाते हैं।


यहां तक कि प्राइवेट स्कूल अब शिक्षा को एक व्यापार के रूप में संचालित कर रहे हैं। शिक्षा का उद्देश्य अब केवल बच्चों को अच्छी शिक्षा देना नहीं रहा बल्कि स्कूल संचालकों का मुख्य ध्यान हर साल फीस बढ़ाने और कमाई के अन्य रास्ते तलाशने में है। ड्रेस, किताबें, स्कूल बैग, और अन्य उपकरणों के नाम पर अभिभावकों से भारी राशि वसूल की जाती है इससे साफ है कि शिक्षा का उद्देश्य अब समाज की भलाई नहीं बल्कि मुनाफा कमाना बन चुका है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकारी तंत्र और नीति निर्माता इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं। दरअसल सरकारी अफसरों और जनप्रतिनिधियों के बच्चे भी बड़े प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं जिससे उन्हें प्राइवेट स्कूलों की मनमानी पर कोई चिंता नहीं होती। स्कूल संचालकों की इस बेलगाम लूट का सबसे बड़ा शिकार आम अभिभावक हो रहे हैं जो बच्चों के भविष्य को लेकर मजबूर हैं और विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते। अगर कोई अभिभावक स्कूलों की फीस या अन्य शुल्कों के खिलाफ आवाज उठाता है तो उसे डर होता है कि उसके बच्चे का भविष्य खतरे में पड़ सकता है। इसका परिणाम यह है कि अब हर नया सेशन शुरू होते ही स्कूलों में फीस बढ़ोतरी, ड्रेस और किताबों की कीमतों में इजाफा और अन्य शुल्कों का बाजार पूरी तरह चरम पर होता है। यही नहीं बिल्डिंग फीस, स्कूल बैग, बच्चों की ड्रेस और अन्य खर्चों के नाम पर अभिभावकों से जमकर उगाही की जाती है। अगर जिलाधिकारी या शिक्षा विभाग के अधिकारी इस पर सख्त कार्यवाही करें और प्राइवेट स्कूलों की जांच करें तो शिक्षा का बाजारीकरण और स्कूल संचालकों की मनमानी सामने आ सकती है। यह स्थिति न केवल अभिभावकों के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए चिंता का विषय बन चुकी है। अगर इस पर अंकुश नहीं लगाया गया तो शिक्षा केवल उन्हीं बच्चों के लिए सुलभ होगी जिनके पास पैसा होगा और गरीब बच्चों के लिए शिक्षा का सपना केवल सपना ही रह जाएगा। शिक्षा का बाजारीकरण केवल समाज में असमानता को बढ़ावा देगा जो किसी भी स्वस्थ समाज के लिए खतरनाक है इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि सरकार और प्रशासन इस पर ध्यान दे और एक ठोस रूपरेखा तैयार करे। प्राइवेट स्कूलों के द्वारा मनमानी फीस, किताबों और अन्य खर्चों पर अंकुश लगाने के लिए कठोर कदम उठाने चाहिए। यही नहीं शिक्षा विभाग को भी इस दिशा में कार्यवाही करनी चाहिए ताकि शिक्षा का उद्देश्य केवल व्यवसाय न बनकर हर बच्चे को समान अवसर प्रदान करना बन सके।

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