स्वराज इंडिया : न्यूज ब्यूरो
दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा ‘उदयपुर फाइल्स’ पर अंतरिम रोक लगाए जाने के फैसले ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, न्यायिक प्राथमिकताओं और राजनीतिक चुप्पी पर एक बार फिर सवाल खड़े कर दिए हैं। यह फिल्म 2022 में दर्जी कन्हैयालाल तेली की नृशंस हत्या पर आधारित है, जिसने पूरे देश को झकझोर दिया था।
28 जून 2022 को राजस्थान के उदयपुर में एक साधारण दर्जी, कन्हैयालाल, की हत्या सिर्फ एक सोशल मीडिया पोस्ट के कारण कर दी गई थी — और वो पोस्ट भी कथित तौर पर उसका नहीं था, बल्कि उसका 8 वर्षीय बेटा गलती से उसे साझा कर बैठा था। इस क्रूर हत्या के बाद दो साल बीत चुके हैं, लेकिन न्याय प्रक्रिया अभी तक निर्णायक मोड़ तक नहीं पहुंची है। वहीं, इस पर बनी एक फिल्म—जिसका उद्देश्य इस कट्टरपंथी सोच को उजागर करना था—को मात्र तीन दिन में कोर्ट के आदेश पर रोक दिया गया।
यह विरोधाभास न सिर्फ न्यायिक व्यवस्था की प्राथमिकताओं को उजागर करता है, बल्कि यह भी सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर एक फिल्म से इतना डर क्यों?
क्यों रोकी गई ‘उदयपुर फाइल्स’?
यह फिल्म सेंसर बोर्ड से मंजूरी प्राप्त कर चुकी थी। बोर्ड की सिफारिशों पर 150 से अधिक कट्स लगाए गए, धार्मिक स्थलों और व्यक्तियों के नाम हटाए गए, यहाँ तक कि नूपुर शर्मा का नाम भी हटा दिया गया। निर्माताओं ने हरसंभव सावधानी बरती कि कोई समुदाय आहत न हो, बावजूद इसके जमीयत उलेमा-ए-हिंद नाम की संस्था ने इसे “सांप्रदायिक” बताते हुए कोर्ट में याचिका दायर कर दी। दिल्ली हाईकोर्ट ने फिल्म के ट्रेलर और याचिका के आधार पर तत्काल प्रभाव से फिल्म पर रोक लगा दी और केंद्र सरकार से रिपोर्ट तलब की।
जमीयत का ट्रैक रिकॉर्ड और उठते सवाल
यह वही संस्था है जिसने बीते दो दशकों में 700 से अधिक आतंकवाद के आरोपियों को कानूनी मदद मुहैया करवाई है। 7/11 मुंबई ब्लास्ट, मालेगांव धमाके, 26/11 जैसे बड़े हमलों में शामिल संदिग्धों के लिए वकील खड़े किए गए। तर्क दिया गया कि “हर किसी को न्याय मिलना चाहिए”, जो कि भारतीय संविधान के मूलभावना से मेल खाता है। लेकिन जब यही संस्था एक फिल्म के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाती है, तो स्वाभाविक रूप से उसकी मंशा और दोहरे मानदंडों पर सवाल उठते हैं।
क्या सिनेमा को सच दिखाने का अधिकार नहीं?
‘उदयपुर फाइल्स’ के माध्यम से एक ऐसी विचारधारा पर सवाल उठाए जा रहे थे, जो “सर तन से जुदा” जैसे हिंसक नारों के ज़रिये समाज में डर का माहौल पैदा करती है। अगर किसी समुदाय या संगठन को आपत्ति है, तो लोकतंत्र में बहस और विरोध की जगह है—लेकिन प्रतिबंध लगाना क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटना नहीं है?
इससे पहले ‘द कश्मीर फाइल्स’ और ‘द केरल स्टोरी’ जैसी फिल्मों पर भी ऐसे ही आरोप लगे थे, लेकिन वे रिलीज़ हुईं, समाज ने देखा, सोचा, और निर्णय लिया। लोकतंत्र की खूबसूरती ही यही है कि वह असहज सवालों से डरता नहीं, बल्कि उनका सामना करता है।
राजनीतिक चुप्पी और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी
अचरज की बात यह है कि वे राजनीतिक दल, जो हर मुद्दे पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा उठाते हैं—चाहे वो कांग्रेस हो, आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी या वामपंथी दल—उनकी ओर से इस मामले में अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। क्या यह चुप्पी इसलिए है कि कन्हैयालाल एक साधारण हिंदू नागरिक थे? या इसलिए कि यह मुद्दा भाजपा के नैरेटिव को बल देता है?
जो भी कारण हो, यह मौन राजनीतिक नैतिकता पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह है।
फिल्म की रोक या सच्चाई की सेंसरशिप?
कन्हैयालाल की हत्या का वीडियो आज भी इंटरनेट पर मौजूद है, उसकी भयावहता किसी भी सभ्य समाज के लिए चेतावनी है। वहीं, उस सोच को पर्दे पर उजागर करने की कोशिश को रोक देना न्याय की प्राथमिकताओं में असंतुलन को दर्शाता है। जब कानून, संवैधानिक प्रक्रिया और सेंसर बोर्ड की मंजूरी के बाद भी एक फिल्म पर इस तरह की रोक लगाई जाती है, तो यह न केवल लोकतांत्रिक संस्थानों की मजबूती पर सवाल खड़े करता है, बल्कि एक खतरनाक मिसाल भी बनाता है।
अंत में सवाल यह है…
क्या अब हमें सिर्फ वही सच्चाई देखने-सुनने की अनुमति है जो सुविधाजनक हो? क्या किसी संगठन को यह अधिकार मिल गया है कि वह अपने विरोध के आधार पर रचनात्मक कार्यों को जनता तक पहुँचने से रोक सके?
‘उदयपुर फाइल्स’ को रोकना केवल एक फिल्म पर प्रतिबंध नहीं है, यह सच्चाई को नियंत्रित करने की कोशिश है। लेकिन इतिहास गवाह है—सच को रोका जा सकता है, मिटाया नहीं।
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