
निर्वाचन में अध्यक्ष दिनेश वर्मा और महामंत्री राजीव यादव को ऐतिहासिक जीत
ब्राम्हण बाहुल्य कानपुर कचहरी से अरसे बाद ब्राम्हणों का वर्चस्व गायब
मुख्य संवाददाता स्वराज इंडिया
कानपुर।
तमाम उहापोह,बहस, गर्मागर्मी, गहमागहमी, वातावरण के तापमान को बढ़ाता घटनाक्रम अंततः समझाइश और मतदाताओं के बहुमत के आगे शीश नमन की मुद्रा तक पहुंचा। अध्यक्ष पद पर मात्र 15 वोटों के अंतर से जीत हुई तो महामंत्री पद पर 311 वोट की आसान जीत दर्ज की गई। कानपुर लॉयर्स चुनाव का रंग इस बार अलहदा और आए परिणाम अनोखे हैं। परिणाम अप्रत्याशित से ज्यादा ऐतिहासिक हैं। क्षेत्र, भाषा, जाति, धर्म के सभी वादों से इतर अध्यक्ष और महामंत्री की जीत का सबसे बड़ा कारण आशीर्वाद है। दोनों ही पदों पर चुने गए चेहरों में समानता है सादगी और जुझारू तेवरों की। जिस प्रकार के ऐतिहासिक घटनाक्रम की पृष्ठभूमि को समेटे कालचक्र में यह चुनाव हुए, उस पृष्ठभूमि में अधिवक्ता समाज को इन्हीं हाथों में, इन्हीं के नेतृत्व में अधिवक्ता स्वाभिमान सुरक्षित लगा। पूरे चुनाव में कहीं ना कहीं वह नैराश्य का भाव भी प्रभावी रहा जिसे यह प्रबुद्ध समाज अपनी वाकपटुता और तर्कशीलता से कुशलता पूर्वक पार्श्व में ढकेलता तो रहता है लेकिन अधिवक्ताओं की इस अंतर्मन की पीड़ा को यह दोनों ही न केवल जानते थे बल्कि अपने संबोधन में विभिन्न रूपकों के जरिए इसे दूर करने का दम भी भरते थे।
अध्यक्ष पद पर चुने गए दिनेश चंद्र वर्मा
दिनेश चंद्र वर्मा 15 वर्ष पूर्व बार एसोसिएशन के मंत्री पद की भूमिका का सफलतापूर्वक निर्वहन कर चुके हैं। वर्ष 2010-11 में बार एसोसिएशन में मंत्री के रूप में उनके कार्यकाल में कानपुर कचहरी ने एक बड़ा और सफल आंदोलन देखा था। उस समय दुर्भाग्यपूर्ण लाठी चार्ज में तत्कालीन महामंत्री नरेश त्रिपाठी सहित अनेक अधिवक्ता घायल हुए थे। महामंत्री नरेश त्रिपाठी कई दिन अस्पताल में भर्ती रहे थे, जिसके चलते आंदोलन के शुरुआती चरण में महामंत्री का दायित्व भी इन्हीं के पास था। इनके जुझारू तेवरों और सौम्य स्वभाव से साथी अधिवक्ता भली-भांति परिचित थे। इस चुनाव में उनके सहयोगियों में सभी जाति के अधिवक्ता प्रभावी रूप से उनके साथ थे। पहले ही प्रयास में अध्यक्ष पद पर मिली जीत अधिवक्ताओं के बीच उनकी लोकप्रियता को दर्शाती है।

तीसरे प्रयास में महामंत्री बने राजीव यादव
कानपुर लॉयर्स चुनाव में शुरुआत से ही राजीव यादव का नाम चर्चा में रहा। वह पिछली बार के रनर प्रत्याशी थे और यह उनका तीसरा प्रयास था। राजीव यादव भी अधिवक्ता हितों को लेकर अपने बेबाक बोल और सदैव सभी के साथ खड़े रहने वाले व्यक्ति के तौर पर जाने जाते हैं। जुझारू तेवर और सादगी भरा अंदाज उन्हें अधिवक्ताओं के बीच लोकप्रिय बनाता है। किसी भी चुनाव में सहानुभूति फैक्टर बहुत प्रभावी माना जाता है, जो इस बार राजीव यादव के पक्ष में था निर्विवाद और बेदाग छवि ने उनकी जीत की राह को और आसान कर दिया।

मिथक टूटे वाद परे हटे
लायर्स चुनाव परिणाम बताते हैं इस बार परंपराएं बदलीं, जातीय समीकरण बदले हैं ,जो मानसिकता में परिवर्तन की ओर भी इशारा करते हैं। मुद्दा विहीन चुनाव की बात करने वाले समझ पाएं या ना समझ पाएं, इस चुनाव में प्रत्यक्ष रूप से एक मुद्दा सबसे बड़ा था अधिवक्ता स्वाभिमान। प्रबुद्ध वर्ग का यह चुनाव यह भी बताता है कि इस वर्ग में जातीय समीकरण उतना मायने नहीं रखता। परिणाम पर प्रतिक्रिया देते हुए अधिवक्ता प्रमेन्द्र साहू ने लायर्स चुनाव में पीडीए जैसी किसी अवधारणा को खारिज करते हुए तर्क दिया यदि अधिवक्ताओं ने जातीय आधार पर वोट किया होता तो राजीव यादव को कम से कम 2400 वोट तो मिलने चाहिए थे। क्योंकि राकेश सचान और दिनेश चंद्र वर्मा के वोटों को जोड़ा जाए तो योग 2500 से अधिक आता है। इसी प्रकार अधिवक्ता प्रदीप तिवारी ने कहा कि इस जीत को किसी राजनीतिक नारे में फिट करने वालों का आकलन सतही है। दोनों ही पदों पर जीते प्रत्याशियों को चुनाव लड़ाने वाले सभी जाति वर्ग के लोग थे। वो तर्क देते हैं चुनाव अगर जाति आधारित होता तो एक ही वर्ग के दो प्रत्याशियों के बीच अध्यक्ष पद पर इतने नजदीकी मुकाबले में तीसरे को विजयी होना चाहिए था।
तर्क कुछ भी दिया जाए, फार्मूला कोई भी गढ़ा जाए लेकिन लायर्स चुनाव के परिणामों से तस्वीर तो बदली है। इस बार दो शीर्ष पदों में से किसी एक पर भी ब्राह्मण नहीं है। इसका कारण वाद हो या आशीर्वाद, लेकिन परिणाम एक बड़ा प्रश्न उत्पन्न करते हैं। यह नए चलन की शुरुआत है या मात्र अपवाद।
