
नई दिल्ली। भारतीय राजनीति में एक बार फिर से बड़ा उलटफेर सामने आया है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफे ने न सिर्फ सत्ताधारी दल भाजपा को असहज किया है, बल्कि विपक्ष के खेमे में भी हलचल मचा दी है। सत्ता और संवैधानिक जिम्मेदारी के बीच पिसते इस घटनाक्रम ने एक बड़ा राजनीतिक विमर्श खड़ा कर दिया है — क्या उपराष्ट्रपति धनखड़ ने केंद्र सरकार को ‘धोखा’ दिया, या फिर वो लोकतंत्र की रक्षा करने की कोशिश में खुद शिकार हो गए?
क्या हुआ था?
सूत्रों के अनुसार, केंद्र सरकार न्यायिक क्षेत्र में दो अहम निर्णयों की ओर बढ़ रही थी:
- जस्टिस वर्मा को हटाने के लिए लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव लाना
- जस्टिस शेखर यादव को विपक्ष के संभावित महाभियोग से बचाना, जिन्होंने VHP के कार्यक्रम में ‘कट्टरपंथियों’ को लेकर सख्त बयान दिया था। केंद्र की योजना साफ थी — लोकसभा के जरिए जस्टिस वर्मा को हटाकर न्यायिक स्वच्छता की नज़ीर पेश करना, और अपने विचारधारा से जुड़े जज की रक्षा करना। लेकिन इसी दौरान राज्यसभा में कुछ ऐसा हुआ, जिससे पूरी रणनीति बिखर गई।
विपक्ष की पिच पर ‘बैटिंग’?
विपक्ष ने जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव राज्यसभा में पेश किया, जिस पर 63 विपक्षी सांसदों के हस्ताक्षर थे। और उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया — बिना केंद्र को सूचित किए। उस समय न तो राज्यसभा में नेता सदन जेपी नड्डा थे और न ही कोई वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री। मौजूद थे सिर्फ़ अर्जुन मेघवाल और जी. किशन रेड्डी — जिनके चेहरों पर इस फैसले के बाद हवाइयां उड़ गईं। केंद्र को भनक तक नहीं थी कि विपक्ष का ये दांव स्वीकार कर लिया जाएगा। सूत्रों का दावा है कि इस फैसले ने जस्टिस वर्मा को हटाने की प्रक्रिया को उलझा दिया और विपक्ष को इस प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका दे दी। इससे केंद्र के हाथ से नैतिक और राजनीतिक बढ़त निकल गई।
जस्टिस शेखर यादव पर भी संकट?
इसके बाद खबरें आईं कि विपक्ष प्रयागराज हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ भी महाभियोग लाने वाला है। और धनखड़ साहब उसे भी स्वीकार करने को तैयार थे, जबकि भाजपा और RSS इस फैसले को रोकने के प्रयास में थे। ऐसे में उपराष्ट्रपति की भूमिका एकदम केंद्र विरोधी मानी जाने लगी।
भाजपा की नाराज़गी और ‘महाभियोग की तैयारी’?
सूत्रों के अनुसार, जब सरकार को इस पूरे घटनाक्रम की जानकारी मिली, तो राजनाथ सिंह के दफ्तर में NDA सांसदों से कोरे कागज पर साइन कराए गए — ताकि जरूरत पड़ने पर खुद उपराष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग लाया जा सके। रात 8 बजे धनखड़ साहब को फोन पर ‘कड़ा संदेश’ दिया गया। और इसके बाद उन्होंने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए इस्तीफ़ा दे दिया। धनखड़ के इस्तीफे के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने एक छोटा सा बयान दिया — “उन्हें कई पदों पर सेवा का अवसर मिला है, जल्द स्वस्थ हों।”
न कोई विदाई का भाषण, न कोई कृतज्ञता — जैसा कि उन्होंने अतीत में हामिद अंसारी या गुलाम नबी आज़ाद के लिए किया था। भाजपा का कोई वरिष्ठ नेता भी उनके पक्ष में बयान देने नहीं आया, जिससे यह साफ होता है कि पार्टी उनके रवैये से पहले ही खिन्न थी।
क्या भाजपा ने ‘आयातित नेता’ से धोखा खाया?
अब भाजपा के भीतर भी ये चर्चा तेज़ हो गई है कि दूसरे दलों से आए नेताओं पर बहुत भरोसा ठीक नहीं। चाहे वो उपराष्ट्रपति जैसे बड़े पद पर क्यों न हों।
धनखड़ पहले कांग्रेस और समाजवादी विचारधारा से भी जुड़े रहे हैं — और कई लोगों की राय में वो कभी पूरी तरह संघ विचारधारा में रचे-बसे नहीं थे। भाजपा के एक खेमे का मानना है कि “अगर कोई नेता निर्णायक संवैधानिक पदों पर हो, तो उसका डीएनए संघ से जुड़ा होना चाहिए। वरना वो एक दिन पीछे से हमला कर सकता है।”
धनखड़ का इस्तीफा महज़ ‘स्वास्थ्य कारणों’ से हुआ हो, यह अब कोई नहीं मान रहा। ये सत्ता के भीतर की असहमति, रणनीतिक असफलता और विश्वासघात के आरोपों का एक मिला-जुला परिणाम है। इस पूरे घटनाक्रम ने यह दिखा दिया है कि राजनीति में ‘अपने’ कौन हैं, और ‘कब तक अपने’ हैं — इसका अंदाज़ा लगाना बेहद मुश्किल हो गया है। अब देखना यह है कि भाजपा इस संकट से क्या सबक लेती है — और उपराष्ट्रपति पद के अगले उम्मीदवार में क्या ‘सांस्कृतिक डीएनए’ पहली शर्त होगा?
रिपोर्ट: स्वराज इंडिया संवाद डेस्क
(कृपया स्रोतों की पुष्टि के लिए आगे की जानकारी की प्रतीक्षा करें — यह लेख विश्वसनीय सूत्रों से मिले संकेतों और राजनीतिक विश्लेषण पर आधारित है।)