Tuesday, May 20, 2025
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यूपी की राजनीति में गिरती भाषा की मर्यादा से ऊबी जनता !

डिजिटल युग में राजनीतिक दलों की ओर से किए गए पोस्ट सीधे सामाजिक सौहार्द, नैतिक मर्यादा और राजनीतिक विमर्श की गरिमा पर असर डाल सकते हैं।

स्वराज इंडिया न्यूज ब्यूरो

लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाल के दिनों में अखिलेश यादव और ब्रजेश पाठक के बीच जिस तरह की तीखी बयानबाजी और सोशल मीडिया के माध्यम से होने वाली बहसों ने तूल पकड़ा है, उसमें सबसे हालिया और विवादास्पद मामला समाजवादी पार्टी के मीडिया सेल द्वारा उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री बृजेश पाठक को लेकर की गई अभद्र टिप्पणी है। यह मामला न सिर्फ एक राजनीतिक टकराव का प्रतीक है, बल्कि यह दर्शाता है कि किस प्रकार डिजिटल युग में राजनीतिक दलों की ओर से किए गए पोस्ट सीधे सामाजिक सौहार्द, नैतिक मर्यादा और राजनीतिक विमर्श की गरिमा पर असर डाल सकते हैं। 16 मई को सपा मीडिया सेल के एक्स (पूर्व में ट्विटर) हैंडल से एक पोस्ट किया गया जिसमें बृजेश पाठक के डीएनए पर आपत्तिजनक टिप्पणी की गई। इस पोस्ट में उपमुख्यमंत्री की तुलना सोनागाछी और जीबी रोड जैसे देश के रेड लाइट एरिया से जोड़ते हुए यह कहा गया कि उनका डीएनए इन क्षेत्रों में नियमित रूप से आने वाले लोगों से मिलाया जाना चाहिए, ताकि उनकी वास्तविक पहचान सामने आ सके। पोस्ट में जिस प्रकार के शब्दों और प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया, वह न केवल अभद्र था, बल्कि महिलाओं और वंचित वर्गों के प्रति भी एक अपमानजनक दृष्टिकोण को उजागर करता है। यही कारण था कि इस पोस्ट को लेकर तीव्र राजनीतिक प्रतिक्रिया सामने आई और बृजेश पाठक ने स्वयं इसे अपनी दिवंगत माता-पिता का अपमान बताते हुए सपा प्रमुख अखिलेश यादव से सार्वजनिक रूप से पूछा कि क्या यही उनकी पार्टी की भाषा है। बृजेश पाठक ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि समाजवादी पार्टी के नेताओं ने जिस स्तर की मानसिकता का परिचय इस पोस्ट के माध्यम से दिया है, वह न केवल स्त्री विरोधी है बल्कि पतित सोच को भी दर्शाता है। उन्होंने यह भी कहा कि राजनीति में विचारों का विरोध होता है, लेकिन किसी के चरित्र और पारिवारिक पृष्ठभूमि पर इस तरह के व्यक्तिगत हमले करना राजनीति को गटर में ले जाने जैसा है। उन्होंने अखिलेश यादव से यह स्पष्ट करने को कहा कि क्या यह उनकी पार्टी की अधिकृत नीति है या किसी असंतुलित व्यक्ति की निजी राय, जिसे पार्टी ने अनुमति दे दी।

उन्होंने कहा कि समाजवाद के नाम पर सपा जिन बातों को बढ़ावा दे रही है, वह केवल गाली-गलौच, जातिगत विद्वेष और अनैतिक आचरण का पर्याय बन चुका है। इस पूरे मामले ने भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं को भी सक्रिय कर दिया। लखनऊ महानगर भाजपा अध्यक्ष आनंद द्विवेदी ने हजरतगंज थाने में समाजवादी पार्टी के आधिकारिक सोशल मीडिया हैंडल के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई। एफआईआर में यह कहा गया कि यह पोस्ट न केवल जातीय विद्वेष फैलाने वाली है, बल्कि महिलाओं का घोर अपमान करती है और समाज में आपसी सद्भाव को बिगाड़ने का प्रयास करती है। इसके अलावा पार्टी कार्यकर्ताओं ने लखनऊ में विरोध प्रदर्शन करते हुए अखिलेश यादव का पुतला जलाया और समाजवादी पार्टी के मीडिया सेल पर कार्रवाई की मांग की। उन्होंने यह भी कहा कि अगर इस प्रकार की अभद्रता के लिए पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से कोई सार्वजनिक माफी नहीं मांगी जाती, तो वे आंदोलन तेज करेंगे।

उपमुख्यमंत्री को भी अपनी भाषा और व्यवहार पर आत्मनिरीक्षण करना चाहिए: अखिलेश यादव

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अखिलेश यादव ने इस पूरे प्रकरण पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि उन्होंने अपने सभी कार्यकर्ताओं से संयमित भाषा का प्रयोग करने को कहा है। लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि उपमुख्यमंत्री को भी अपनी भाषा और व्यवहार पर आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि राजनीति में यदि सत्ता पक्ष की ओर से निरंतर अनर्गल आरोप लगाए जाएंगे, तो विपक्षी कार्यकर्ताओं में भी प्रतिक्रिया की भावना उत्पन्न होगी। अखिलेश का यह बयान इस ओर इशारा करता है कि वे इस मामले में पूरी तरह सपा की सोशल मीडिया टीम के साथ खड़े हैं और उन्होंने यह भी संकेत दिया कि यदि भाजपा को ऐसी टिप्पणियों से आपत्ति है तो उन्हें भी अपने नेताओं के बयानों की जांच करनी चाहिए।

समाजवादी पार्टी अब समाजवाद की प्रयोगशाला नहीं, बल्कि गाली-गलौच की प्रयोगशाला: पाठक

बृजेश पाठक ने इसके जवाब में अखिलेश यादव पर एक बार फिर से तीखा प्रहार किया और कहा कि समाजवादी पार्टी अब समाजवाद की प्रयोगशाला नहीं, बल्कि गाली-गलौच की प्रयोगशाला बन चुकी है। उन्होंने कहा कि जिस डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के सिद्धांतों को सपा अपनाने का दावा करती है, उनकी आत्मा इस तरह के कृत्यों से व्यथित होगी। पाठक ने यह भी कहा कि राजनीति में नैतिकता और शालीनता होनी चाहिए, लेकिन सपा नेतृत्व ने अब इसे पूरी तरह ताक पर रख दिया है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि यदि विपक्षी दलों को लगता है कि सत्ता पक्ष की नीतियों में कोई त्रुटि है, तो उन्हें तथ्यों के आधार पर बात करनी चाहिए, न कि व्यक्तिगत स्तर पर जाकर अनर्गल आरोप लगाने चाहिए। यह प्रकरण न सिर्फ एक राजनेता के मान-सम्मान से जुड़ा है, बल्कि यह पूरे लोकतंत्र की परिपक्वता पर भी सवाल खड़ा करता है। सोशल मीडिया आज राजनीति का एक अत्यंत प्रभावशाली मंच बन चुका है। लेकिन जिस प्रकार से राजनीतिक दलों की ओर से इस मंच का उपयोग अब मर्यादाहीन और असंयमित भाषा के लिए किया जा रहा है, वह बेहद चिंताजनक है। यह केवल एक दल या एक नेता का मुद्दा नहीं है, बल्कि पूरे राजनीतिक विमर्श की गिरती गुणवत्ता का प्रमाण है। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में स्वस्थ आलोचना एक अनिवार्य तत्व होती है, लेकिन जब यह आलोचना निचले स्तर पर जाकर निजी जीवन, पारिवारिक पृष्ठभूमि और जातिगत पहचान पर केंद्रित हो जाए, तो इससे न केवल राजनीतिक वातावरण दूषित होता है, बल्कि आम जनता के बीच भी राजनीति के प्रति विश्वास में गिरावट आती है।

राजनेताओं को संयम बरतना चाहिए

घटनाक्रम से यह भी स्पष्ट होता है कि राजनीतिक दलों को अपने सोशल मीडिया प्रबंधन के लिए केवल तकनीकी दक्षता नहीं, बल्कि वैचारिक परिपक्वता और सामाजिक जिम्मेदारी का भी ध्यान रखना चाहिए। यह आवश्यक है कि सोशल मीडिया टीमों को केवल पार्टी लाइन का प्रचार करने तक सीमित न रखा जाए, बल्कि उन्हें यह भी सिखाया जाए कि भाषा की मर्यादा और समाज की संवेदनाओं का आदर किस प्रकार किया जाता है। इस दिशा में अगर सख्ती नहीं बरती गई, तो आने वाले समय में राजनीतिक संवाद केवल ट्रोल संस्कृति में सिमटकर रह जाएगा। साथ ही यह मामला महिलाओं के प्रति सम्मान और सामाजिक चेतना से भी जुड़ा हुआ है। जिस प्रकार से पोस्ट में रेड लाइट क्षेत्रों और वहाँ काम करने वाली महिलाओं को उपहास का माध्यम बनाया गया, वह स्त्री विरोधी मानसिकता की ओर इशारा करता है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की बात करने वाले दल यदि इस प्रकार की अभद्रताओं को संरक्षण देते हैं, तो यह न केवल पाखंड है बल्कि उस समावेशी समाज के खिलाफ एक सीधा प्रहार है जिसकी कल्पना संविधान करता है।

आखिरकार यह पूरा विवाद इस बात की ओर संकेत करता है कि भारतीय राजनीति को अब विचारधारा की बजाय ट्रोलिंग और बदजुबानी के रास्ते पर धकेला जा रहा है। यह जरूरी है कि देश के सभी राजनीतिक दल, चाहे वे सत्ता में हों या विपक्ष में, इस प्रवृत्ति पर गंभीर आत्ममंथन करें। राजनीतिक विमर्श को गरिमामय बनाना केवल भाषणों और घोषणाओं से नहीं होगा, बल्कि वह नेताओं और उनके संगठनों की वास्तविक नीयत और कार्यशैली से प्रकट होगा। अगर इस प्रकार की घटनाओं को रोकने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाले वर्षों में यह संभावना प्रबल है कि राजनीति में वैचारिक संघर्ष के स्थान पर व्यक्तिगत अपमान और नैतिक पतन ही मुख्य हथियार बन जाएंगे। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक संकेत होगा और इसका दुष्परिणाम देश की जनता को ही भुगतना पड़ेगा।

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